मनीष सिन्हा
गांधी और सावरकर 1906 में पहले एक बार मिल चुके थे। जब गांधीजी इंडिया हाउस में रुके थे। उसके बाद वे उनसे 1909 में फिर मिले, जब गांधीजी दूसरी बार दक्षिण अफ्रीका से इंग्लैंड आए। सावरकर के विचारों से गांधीजी वाकिफ भी थे और इंग्लैंड में रह रहे भारतीय नौजवानों पर उनका प्रभाव भी वे जानते थे। गांधी जी को पूरा यकीन था कि कर्जन विली की हत्या में सावरकर का हाथ है। वह अखबार में छपे धींगरा के बयान के पीछे छपे लेख को भी खूब पहचान पा रहे थे। 24 अक्टूबर 1909 को जब धींगरा की फांसी की गूंज शांत भी नहीं हुई, गांधीजी और सावरकर एक ही मंच पर भारत के भविष्य की दो विरोधी संकल्प लेकर आते हैं।
मौका था दशहरे का, जो अच्छाई की बुराई पर जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। दोनों ने ही रामायण के उदाहरणों से अपनी बात कही। दशहरे के उस भोज का आयोजन सावरकर के कहने पर इंडिया हाउस के उनके अनुयायियों ने किया था। पहले गांधी जी को बोलना था फिर सावरकर को। उस घटना को याद करते हुए गांधी जी ने बाद में कहा की मैंने बगैर किसी झिझक के उनका यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया ताकि मैं उनसे हिंसा के रास्ते परिवर्तन के बारे में बात कर सकूं। गांधीजी ने एक तरफ अपनी तरफ से दो शर्ते भी रखी। एक भोजन शाकाहारी हो, जिसे वो खुद पकाएंगे और दूसरा यह कि सभा में विवादास्पद राजनीति की चर्चा नहीं होगी। अपनी बात में गांधी जी ने रामायण को ऐसा ग्रंथ बताया जो सच्चाई के लिए कष्ट सहने की सीख देता है। भगवान राम ने सच्चाई के लिए बनवास का कष्ट सहा, सीता ने रावण की कैद में रहकर भी पवित्र सहनशीलता का परिचय दिया। लक्ष्मण का बनवास से कठोर तपस्या थी।गांधी जी ने कहा कि सच्चाई के लिए इस तरह का त्याग और तपस्या ही भारत को स्वतंत्रता दिला सकती है।
सावरकर ने अपनी बात में इसी कहानी का एक दूसरा मतलब लोगों के सामने रखा। उन्होंने कहा कि रावण जो कि दमन और अन्याय का प्रतीक है उसके मरने के बाद ही तो राम राज्य की स्थापना हुई। दुष्टता का नाश दुष्ट के विनाश से ही संभव है। सावरकर ने देवी दुर्गा की प्रशंसा की और कहा कि दुष्ट को खत्म करना जरूरी है। इसके 40 साल बाद तक दोनों अपने-अपने रास्ते समाज परिवर्तन का काम करते रहे, लेकिन दोनों दो विरोधी दर्शन के पैरोकार बने रहे। इसी की परिणति सावरकर और उनके साथियों द्वारा गांधी जी की हत्या में हुई।सावरकर की रामायण में दुष्ट रावण को मारना जरूरी था और आजादी की रामायण में उनकी नजर में गांधीजी रावण थे। उधर महात्मा गांधी मरने से हिचकते नहीं थे वह तो इस साधना में लगे थे कि मरते वक्त उनके मुंह से राम का नाम हो।
गांधीजी अपने सत्याग्रह संघर्ष के लिये दक्षिण अफ्रीका लौटे तो उधर सावरकर हिंदुस्तान में एक और अंग्रेज की हत्या की योजना बनाने में जुटे। नासिक के जिला मजिस्ट्रेट की हत्या 16 साल के अनंत कन्हारे ने सावरकर के निर्देश पर ही की थी। मुंबई में सावरकर पर हत्या का मुकदमा चला, वह दोषी पाया गये। जून 1911 में उन्हें 50 साल के काला पानी की सजा सुनाई गई और अंदमान में बंदी बना लिया गया।वह 10 साल तक अंडमान की जेल में रहे लेकिन वहां पहुंचने के पहले साल के भीतर ही उन्होंने अंग्रेज सरकार को दया की अपनी अर्जी लिख दी थी।
1913 में उन्होंने फिर एक याचिका लिख भेजी, जिसमें अंग्रेज राज्य सरकार के प्रति अपनी वफादारी का वादा किया। उन्होंने इस अवधि में लिखा कि यदि सरकार दया पूर्वक उन्हें छोड़ देती है तो वह भविष्य में संविधान के रास्ते पर चलेंगे और भारत और विदेश में रहने वाले जो युवा उन्हें अपना नेता मानते हैं उन्हें सरकार के समर्थन में लाएंगे। जब सावरकर पत्राचार द्वारा अंग्रेज सरकार से दया की भीख मांग रहे थे, गांधीजी दक्षिण अफ्रीका का अपना आंदोलन सफलतापूर्वक पूरा कर भारत लौटने की तैयारी कर रहे थे। उधर अंदमान पहुंचते ही माफी मांगने की जो कोशिश सावरकर ने शुरू की थी, वह रंग ला रही थी अंग्रेज सरकार ‘सुबह के भूले बेटे’ की वापसी स्वीकार करने की तैयारी कर रही थी।
कालापानी ने सावरकर को अंग्रेज सरकार का ‘काला सेवक’ बना दिया था। सितंबर 1914 को हुए अंग्रेज सरकार को एक पत्र में वह लिखते हैं कि भारत और अंग्रेजों की एक ही पृष्ठभूमि है हम आर्य हैं और इस को ध्यान में रखते हुए उनके साथी एक वृहद आर्य साम्राज्य खड़ा करने में अंग्रेज सरकार की मदद करेंगे। 1921 में जेल के कैदियों को चर्चा में शामिल कर गांधीजी के और उनके शाकाहार आंदोलन की निंदा करते हैं। वह कहते हैं अहिंसा और सत्य के रास्ते कभी स्वराज नहीं मिल सकता। सावरकर और अंग्रेजी राज के बीच सांठगांठ के तहत सरकार ने उन्हें रत्नागिरी की जेल में रखा। उन्हें वहां पुस्तकालय संभालने का काम दिया गया।
1923 में उन्हें येरवडा जेल लाया गया और जेल कारखाने का जिम्मा सौंपा गया,लेकिन इसकी आड़ में उन्हें वह जिम्मेदारी भी दी गई जिसका समझौता हुआ था– सावरकर गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में गिरफ्तार होकर जेल आए सत्याग्रहियों को शिक्षित करने का काम भी करने लगे। जिसकी अपनी कोई शिक्षा ही नहीं, उसे सत्याग्रह को भ्रमित करने के काम में लगाया गया। सावरकर ने उन लोगों से कहा कि चरखे द्वारा स्वराज लाने की बात कैसी मूर्खतापूर्ण है। उन्होंने हिंदुओं द्वारा मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने और अहिंसा जैसी बेतुकी बातों को ऐतिहासिक संदर्भ देकर पूरी तरह खारिज किया।
यह अजीब विडंबना थी कि गांधीजी जो किसी समय ब्रिटिश साम्राज्य के पैरोकार थे आज उसके सबसे बड़े विद्रोही बन गए थे और सावरकर जो कभी भी हिंसक क्रांति से कम की बातें ही नहीं करते थे, अंग्रेजों को मार कर आजादी लाने की बात युवकों को सिखाते थे, आज वही सावरकर अंग्रेज सरकार से वादा कर रहे थे कि यदि उन्हें रिहा कर दिया गया तो वह हर प्रकार की राजनीतिक गतिविधि से अपने को दूर रखेंगे। कभी रत्नागिरी जिले से बाहर नहीं जाएंगे। किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे। इस लिखित स्वामीभक्ति के बाद 6 जनवरी 1924 को सावरकर यरवदा जेल से रिहा हुए। फिर कभी किसी कारण जेल ना जाने के संकल्प के साथ।
सावरकर खुद को युद्ध बंदी सेनापति करवाते थे और अपनी तुलना कृष्ण करवाते थे। वह अपनी ऐसी छवि सुधारने में लगे थे जैसी महाभारत के युद्ध में हथियार ना उठाने की घोषणा करने वाले श्री कृष्ण की है। जिस तरह युद्ध में भागीदारी न करना श्री कृष्ण के लिए कोई अपमान की बात नहीं की तो फिर उनके लिए कैसे हो सकती है? 1909 में रामायण के संदर्भ में गांधी जी से हुई चर्चा का स्मरण सावरकर को पूरे वक्त रहा। वह कहते थे कि मैं भगवान राम की तरह ही 14 साल बनवास के बाद लौटा हूं। हालांकि उनके अनुसार राम रावण का वध करने के बाद वनवास से लौटे थे। यहां रावण अभी जिंदा है जब इस रावण का वध होगा तभी मुझे मुक्ति मिलेगी।
जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने समुद्र किनारे के एक छोटे से शहर रत्नागिरी से अपनी राजनीतिक गतिविधिशुरू की। अंग्रेजों को उनकी गतिविधियों से कोई आपत्ति नहीं थी। रत्नागिरी के जेल में ही सावरकर ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘हिंदुत्व हिंदू क्या है’ लिखी। अब उनकी छवि मुस्लिम विरोधी उग्रवादी हिंदू की बनने लगी थी। वह हिंदू मुस्लिम भेद की बात कर रहे थे। वही भेद फैलाने की कोशिश अंग्रेज भी कर रहे थे।
1925 में रत्नागिरी आकर सावरकर से मिलने वालों में पहले व्यक्ति थे केशव बलिराम हेडगेवार,जो पेशे से डॉक्टर थे पर सावरकर के हिंदुत्व के विचारों से बेहद प्रभावित थे। दोनों के बीच इस बात पर विस्तृत चर्चा हुई। हम पाते हैं कि उसके बाद ही आर एस एस की स्थापना हुई। इस काम के पीछे वह रणनीति छुपी थी जो मुसोलिनी ने ब्लैक शर्ट नाम से अर्धसैनिक बल को खड़ा करने में अपनाई थी। जिसमें 20वीं सदी का अंत आते-आते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इतना संगठित व मजबूत हो गया कि उसने मुसलमानों को डरा कर राजनीतिक सत्ता हासिल करने की योजना पर काम शुरू कर दी।
1927 में गांधीजी सावरकर से एक औपचारिक भेंट के लिए मिलते हैं। यह दोनों की आखिरी मुलाकात है। विदा होते वक्त गांधीजी सावरकर से कहते हैं मुझे तो साफ लगता है कि हम कई बातों में एक दूसरे से सहमत नहीं है फिर भी मैं आशा करता हूं कि आपको मेरे प्रयोगों से दिक्कत नहीं होगी। जवाब में सावरकर कहते हैं क्या आप अपने प्रयोग देश की कीमत पर करेंगे? ऐसा हम करने नहीं देगे।
1929 में एक डाक कर्मचारी का तबादला रत्नागिरी में हुआ। नाम था विनायक गोडसे। बाद में उसका परिवार की वहां पहुंचा। विनायक गोडसे का 19 साल का बेटा नाथूराम यही पहली बार सावरकर से मिला। गांधी हत्या में नाथूराम के सहयोगी और उसके भाई गोपाल गोडसे ने बाद में लिखा कि नाथूराम सावरकर से मिलने कई बार जाता था। नाथूराम ने सावरकर के कई लेखों की नकल बनाने का काम भी खुशी-खुशी किया। नाथूराम आर एस एस से भी जुड़ा था। बाद में उसे संघ की एक शाखा के ‘शैक्षणिक विभाग’ का प्रधान भी नियुक्त किया गया। नाथूराम ने सावरकर के विचारों को मानना और उसे फैलाना अपना उद्देश्य बना लिया।
1930 में सावरकर ने मुसलमान विरोधी संगठन हिंदू महासभा को बनाने में मदद की और 1937 से 1944 तक इसके अध्यक्ष भी रहे।1940 में हिंदू राष्ट्रवाद और जंग को जोड़ने वाला उनका विचार और परिपक्व हुआ। ‘राजनीति का हिंदू करण’ और ‘हिंदुओं को सैन्य करण’ का उनका नारा मशहूर हुआ।